पहले कुछ नीजी जिंदगी से जुडी यादें :
हम दोनों भाईयों के एक ही रंग के , एक जैसे ही कपडे हुआ करते थे। बिलकुल बैंड वालों की तरह। साल में दो जोड़ी आधी पेंट आर कमीज़ या फिर टी शर्ट। दीपावली में एक और सेट मतलब खुशहाली आई हो मानो। दो - एक महीनो में शिवगंगा पर नाई के यहाँ एक साथ बाल कटवाना, वहीँ एक आध फ़िल्मी किताब छानना। नाई से स्कूल - फिर कोलेज की बातें बाट्ना। नाई क्या, पिलानी का हर बुड्ढा - बुजुर्ग, घर का सदस्य ही होता जो था। साल की शुरुवात में एक बार थोक में कोपियाँ खरीदना, उनपर भूरे कव्हर चढ़ाना।
आज भी याद है।
होली दिवाली में मिठाइयों की रेल चेल, बस साल में एक बार ही होती थी, इसलिए शायद उनका महत्व टिका रहता था। दूध - दही की कोई कमी नहीं रहती थी, पर बाकी सिर्फ दाल - रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ। सिर्फ सर्दियों में पिलानी में सब्जियां दिखती थी और पकती थी। बाहर के खाद्य पदार्थ वर्ज्य ही थे। माली हालत और उस समय के रीती रिवाज ही ऐसे थे। कोलेज में जाने के बाद केन्टीन की चाय, कभी कबार दोसे - समोसे तक के पैसे मिलते थे।
आज भी याद है।
खेलों में पिट्टू, दाम दडी, गुल्ली डंडा। बहुत हुआ तो वोली बाल। क्रिकेट से सिर्फ कोमेंट्री के जरिये संपर्क था। बाद बाद में हम खेलने भी लगे थे। हाँ बेस बाल भी बाद में हम से जुड़ गया था। कोलेज में फिर टी टी और बेडमिन्टन भी हमारे प्रिय खेलों की फैरिस्त में जुड़ गए।
आज भी याद है।
आज कल किताबें खरीदना कोई नई बात नहीं है, और तो और कम्पुटर हो तो ई - बुक भी हाजिर है। उन दिनों पिलानी में रह कर लायब्ररी की वजह से हमने खूब पढ़ने का शौक पूरा किया। रही सही कसर नाई की दूकान पर हलकी फुल्की फ़िल्मी किताबें पढ़कर पूरी करते थे और हमारा सामान्य ज्ञान बढ़ाते थे।
आज भी याद है।
कुछ रोज़ मर्रा जिंदगी से जुडी यादें:
डाकिया हमारी सब की जिंदगी का एक अभिन्न अंग हुआ करता था। पोस्ट कार्ड, कभी अंतर देशीय पत्र , कभी कबार खशी - गम के तार। ये सब हमें मीलों दूर रहने वालें रिश्तों से जोड़ते थे। आज कल तो मेल से या फोन से ही सब जुड़े हैं। वह खाकी वर्दी और टोपी वाला रास्ट्रीय प्राणी आज बिलकुल गायब सा हो गया है। अब कुरियर वाला वही काम करता है। पर वो शान कहाँ ?
मोबाईल - स्काईप जैसी चीजों का इजाद ही नहीं हुआ था।आज तो घर बैठे कम्पुटर हो तो देश विदेश में , सात समुन्दर पार कहीं भी मुफ्त में बात कर सकते हैं। उन दिनों फोन तो बिरलों के घर पर ही हुआ करता था। पोस्ट ऑफिस में जा कर एस टी डी , बुक करना एक समस्या सी लगती थी। लो कर लो बात।
आज भी याद है।
आज सेंकडों मीलों का सफ़र घंटो में हवाई जहाज से या दिन भर में गाडी से तय होता है। बसें भी गजब की आराम देय और तेज हो गयी हैं। उन दिनों सफ़र तो एक बड़ा सिर दर्द हुआ करता था। पहले तो बस से चिडावा - लोहारू पहुँचो, फिर मीटर गेज की गाड़ी से कन्सेशन के टिकट ले कर, असुरक्षित डब्बों में धक्के खा खा कर सवाई - माधोपुर पहुँचो और फिर जनता एक्सप्रेस या देहरादून एक्सप्रेस से बम्बई पहुँचो। फिर असुरक्षित डब्बों से सफ़र।
आज भी याद है।
आज - कल फोन से खाना मंगाओ, होटल से पार्सल लाओ और घर बैठे टी व्ही देखते देखते आराम से खाओ। हफ्ते दस दिन में बाहर निकलो, दु - पहिया या गाडी निकालो , घुमने जाओ, लौटते वक्त बाहर ही खा कर आ जाओ। इटालियन - चायनीज़ - थाई जैसा कोई पदार्थ आराम से मिलता है। और तो और जनम दिन जैसे अवसरों पर, नेट से अपने निकट वर्तियों को केक - गुलदस्ते - गिफ्ट भेजो। और उनका आनंद बढाओ। लो कर लो बात।
उन दिनों तो माँ ही सब कुछ करती थी इस लिए पित्ज़ा - बर्गर - दोसे- मंचूरियन नहीं , हलवा - पूरी , मीठे चावल या ज्यादा ही हुआ तो बाहर से कुछ मिठाई - विठाई।
आज भी याद है।
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