सबकी नजरें चुरा कर रात को पिलानी के टूटे से सिनेमा घर में 65 पैसे का पाटिये का टिकेट खरीद कर कम्बल की आड़ में पिक्चर देखने का लुत्फ़ कुछ और ही रहता था।
गर्मियों में , गली में लाइन से लगी खाटों पर सो कर नीले आकाश को ताकते रहने में कुछ अलग ही मजा आता था।
सामने हमारे लैब मास्टर जी ( उनके छोटे कद की वजह से हम उन्हें लंगोट कहते थे ) का किराए पर लिया कमरा और फिर पुरे मकान पर जमाया कब्ज़ा तो आनंद की मनो सीमा ही थी। और मजा तो तब आया जब हमने उनके रसोई घर का दरवाज़ा भी खोलना और बंद करना सीख लिया। फिर क्या था रोज़ रात को चाय के दौर चलते थे। उनका ही स्टोव , उनका ही मिटटी का तेल, और उनकी ही दूध की पावडर का भरा डब्बा, और नके ही बर्तन। भगवान् ने जब दिया मनो छप्पर फाड़ कर ही दिया।
कॉलेज के दिनों हर हफ्ते एक पिक्चर , वो भी इंजीनियरिंग कॉलेज के क्वाड्रेंगल में मौके की जगह देखना, मानो हमारे लिए ही सुरक्षित हो। वाह क्या मजे आते थे?
सुबह 7.30 बजे शात्रीय संगीत पर आधारीत गाने सुन कर साईकिल से निकलना, दुपहर को खाने के बाद थोडा सुस्ताना फिर 1.40 को पुराने गाने के समापन में सहगल के गाने सुन कर फिर निकलना , वो लाइब्ररी , वो कंटीन की चाय की चुस्कियां, फिर शाम का जिम और रात को नूतन मार्केट के मुडडे तोड़ कर घंटों चाय पीना।
व्हाह वो भी क्या दिन थे।
वो लाइब्ररी की किताबें, एक से एक उपन्यास चाटना, मेरे परम मित्र, बलराम के साथ उनपर चर्चा करना। शाम को जिम के बाद फूली बाहें और चौड़ी छाती को शीशे में देखना, फिर दादागिरी स्टाइल में शिवगंगा में छोटू के चाय समोसे, ठण्ड के दिनों में चाचा की भुनी मूंगफली ,कोई भुला सकता है? कोई फिर वो दिन बुला सकता है भला ?
हर दिन एक जश्न सा लगता था। हम सभी मानो युहीं गाते थे " हर फ़िक्र को धुवें में उड़ाता चला गया ". हर दौर का एक अलग अनुभव रहता है। उस दौर में शायद हम सब इन छोटी छोटी खुशियों को बटोरते आगे बढ़ रहे थे, मानो ये खुशियाँ हमें फिर नसीब न हों।
शायद हुआ भी ऐसा , या ये कहूँ कि शायद होता ही ऐसा है।
अगले दौर की खुशियों के बारे में फिर कभी।
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