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Saturday, August 23, 2008
ओलीम्पिक्स
ओलिम्पिक्स आए, मेडलों की सौगात लेकर,
करीब ३०० स्वर्ण पदकों की बोली लगी,
पर अपने हाथ सिर्फ़ एक ही लगा ।
क्या करें ??
हमारी संस्कृती ही हमेशा आडे आती है,
हमे सिखाया जो गया है " पहले आप " ।।
तो फिर इस स्वर्ण पदकों की दौड़ में भी अपनी तहजीब कैसे छोडें ??
सोने के इक छोटे से सिक्के में क्या रक्खा है ??
यही सोच कर अपने ५६ रण बन्कुंरों ने
दुसरे सभी को आगे बढ़ने दिया,
कहा " हमें सोने की लालसा नही है , हम तो सिर्फ़ हिस्सा लेने आए हैं "
और फिर पहले आप की दुहाई देकर बाकि लोगों को जीतने के अवसर दिए।
हमने खेल भावना नही छोडी, किसी कीमत पर।
यही हमारा गौरव है।
हमारी विश्व विजेता , पुरुषों की होकी टीम राजनीती की चपेट में आयी
पहले ही धराशायी हो गयी।
महिलाओं की टीम ने भी गलियारों ही बैठने की ठानी थी,
और उधर चीन की टीम ने पहली बार हिस्सा लेते हुए
रजत पदक ले कर ही साँस ली।
हमारे रण बांकुरों ने टी वी की चौखट में आने का प्रयास भी नही किया,
पहले आप की कसम ने उन सब को बाँध जो रक्खा था।
हम कभी साधक नही बने क्योंकि हम कभी बाधक नही हुए।
खैर ॥ एक बात तो माननी पड़ेगी,
हमारे किसी स्पर्धक ने खेल के बीच ही में
सफ़ेद तौलिये नही फहराए। अंत तक हिस्सा लिया
नतीजा कुछ भी रहा हो।
यही तो एक सच्चे खिलाडी की पहचान है,
यही तो उसकी खिलाड़ी भावना का प्रतीक है॥
और वैसे भी - हमने हमेशा यही विश्वास रक्खा है " आज नही तो कल "
तो,
इन्तजार कीजिए , उस सुनहरी सुबह का
तब तक के लिए -
" माँ तुझे सलाम "
" वंदे मातरम "
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