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Saturday, September 6, 2008
बिन्दु बिन्दु विचार - सहज बुद्धी
मुझे हमेशा यह विचार आता है कि लोगों में सहज और सरल बुद्धी कि कमी क्यों होती है ? क्यों हम एक छोटी सी समस्या को एक विकराल रूप देतें हैं , और उसे एक बड़ी और न सुलझने वाली गुत्थी बनाते हैं ?
कुछ उधारण पढिये :
एक आदमी को दिल्ली से रोहतक जाना था, उसने बस स्टैंड पर खड़ी एक बस में बैठे यात्री से पूछा " भाई , ये बस रोहतक जायेगी ?? यात्री ने कहा जायेगी। उस व्यक्ति ने कहा " अरे बस के बोर्ड पर तो लिखा है - दिल्ली - भिवानी , तो यात्री ने कहा , भाई तुम्हे बस में चढ़ कर जाना है कि बोर्ड पर बैठ कर जाना है। "
अब मेरे व्यवसाय से जुड़े कुछ किस्से पढिये :
मेरे लेप टॉप का बेटरी चारजर ख़राब हुआ। असल में उसकी तारें बार बार मोड़ने कि वजह से टूट गई थीं। टूटा हुआ हिस्सा बाहर से भी नजर आता था। मेरे इंस्ट्रूमेंट इंजिनअर को यह काम सोपा। वह कुछ देर बाद आ कर बोला, सर - इसे बदलें तो अच्छा होगा। मैंने पूछा क्यों, इसे ठीक नही किया जा सकता क्या। उसने कहा होगा, पर
चार्जर को काटना पड़ेगा, और फिर टूटी हुई तार को काट कर अन्दर सिरे से जोड़ना पड़ेगा। मैंने कहा काम क्यों बढाते हो, इसे बाहर ही काटो, जोडो और टेप लगा दो । १५ मिनट में काम हो गया।
और एक नमूना :
हमने ५० एकर जमीन पर, १,५०,००० स्कायर फीट ( वर्ग फीट ) का बड़ा सा प्रोजक्ट खडा किया तब हमने करीब २ हजार वर्ग फीट का प्रोजक्ट ऑफिस बनाया था । अब जब मर्क कम्पनी के लिए हम ५००० वर्ग फीट पर निर्माण कार्य हेतु काम कर रहें हैं, तो उनके कंसल्टेंट ( जेकोब ) ने करीब ६००० वर्ग फीट का प्रोजक्ट ऑफिस बनाया है। नही तो कैसे सब को लगेगा की कोई बड़ा प्रोजक्ट चल रहा है ?
इसी प्रोजक्ट के लिए गत दिसम्बर में ( २००७ ) कहा की यदि हम इसे करें तो फरवरी ०९ में हम काम पूरा कर , इसे आप को सौंप देंगे। उन्हें हमारी बैटन पर विश्वास नही हुआ। उन्होंने जेकोब को कंसल्टेंट ( परामर्श दाता ) चुना । जेकोब को तो जैसे सोने के अंडे देने वाली मुर्गी हाथ लग गयी, जैसे उनकी लौटरी लग गयी। पहले उन्होंने हमें निचा दिखाने का भरसक प्रयास किया। फिर कहा की हमारा ( बी ' ई ' का ) यथार्थ वादी अनुमान नही है।
फिर योजनाओं का, मंत्रनाओं का जैसे एक सैलाब आया। हर महीने मर्क , जेकोब के लोग अमरीका , दिल्ली, मुंबई से हैदराबाद आने लगे। नियोजन पर नियोजन होने लगे। अनुमानों की तारीखें बदली गयीं। पहले एक कच्चा अनुमान, फिर ३० - ७० अनुमान, फिर ५० - ५० अनुमान तैयार हुआ। तै हुआ की यदि सब कुछ ठीक ठाक चला तो जून ०९ को प्रोजक्ट ख़त्म होगा। सब ने राहत की साँस ली। कहा चलो हम सब के उत्तराधिकारी इस अनुमान को हरी झंडी देंगे। जेकोब को क्या फिक्र थी, उन्हें तो मनुष्य - घंटों पर पैसे मिलने थे । उनका मीटर तो दिसम्बर से ही चालू हो चुका था। वे भी नही चाहते थे की उनकी सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को जल्दी हलाल किया जाय ।
अब जेकोब का कहना है । प्रोजक्ट सितम्बर में ख़त्म होगा। नतीजा यही है, की हर अगले महीने जब फिर नियोजन के लिए मिलते हैं तो प्रोजक्ट के ख़त्म होने का अनुमान भी एक और महीने से खिसकता है। बहुत ही सहज और सरल उपाय अपनाया जाता है। जसपाल भट्टी की याद आती है। कमिटी का काम यही होता है की चाय , बिस्कुट और काजू खा कर फैसला लिया जाय की अब यथार्थ वादी अनुमान क्या हो। असली काम से किसे मतलब ।
सब को ऐसा लगता रहता है, की बहुत काम हुआ। असली प्रोजक्ट पिछले ८ महीनों में एक इंच भी आगे नही बढ़ा। प्रोजक्ट ऑफिस, रहने - खाने की व्यवस्था, आने - जाने की व्यवस्था , सुरक्षा , जैसे ग्लोबल विषयों पर चर्चा थमते नही थमती।
इसे कहते हैं - सहज बुद्धि का अभाव।
लेना - देना कुछ नही, काम में तर्रकी कुछ नही पर खर्चा रुपैय्या।
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